संतमत अनुयायी आश्रम, मठ गड़वाघाट (एक संक्षिप्त परिचय)

         सद्‌गुरु महाराज की स्वीकृति से इस मठ गड़वाघाट के पादशाही की गद्दी, हमेशा सर्वाधिक योग्य शिष्य से ही सुशोभित हुई है। ये परमपूज्य संत मन, वचन एवं कर्म से अपने सद्‌गुरु की शिक्षाओं के ही मूर्त रूप थे। इस आश्रम की पूज्य एवं पावन गुरु-परंपरा प्रारंभ से ही कर्म-कांडों से मुक्त आध्यात्मिक ज्ञान के उपदेश व साधना के प्रचार-प्रसार में और, अपने शिष्यों के आध्यात्मिक जीवन को सँवारने में निरंतर संलग्न रही है। अपनी स्थापना से लेकर आज तक यह मठ-गड़वाघाट लोगों की मुक्ति हेतु उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान का पाठ पढ़ा रहा है। यह आश्रम सन्यासियों के उस समुदाय की सेवा में सदा ही समर्पित रहा है, जिन्होंने स्वेच्छा से निवृत्ति-मार्ग (त्याग का मार्ग) चुना और, यहाँ की आध्यात्मिक-परंपरा के अनुसरण में प्रवृत्त हुए। साधु-संतों के पद-चिन्हों पर चलने वाले इस अत्यंत पवित्र आश्रम की स्थापना वर्ष १९३० में हुई थी। इस आश्रम की स्थापना संतमत की शिक्षाओं को प्रोत्साहित करने के लिये, भिक्षुओं एवं संन्यासियों की सेवा के लिये, गरीबों एवं छात्रों आदि की आर्थिक व आध्यात्मिक उन्नति के लिये, एवं जनहित गतिविधियों द्वारा लोक-कल्याण के लिये की गई थी। यहाँ जिज्ञासुओं को जाति, धर्म, वर्ण, उम्र, लिंग आदि भेदभावों के बिना ही पराविद्या का ज्ञान दिया जाता है।

         पुरातन काल से ही साधु-संतों का यही उद्देश्य रहा है कि जीवन में ’परम-सत्य’ के साक्षात्कार की राह में अवरोध पैदा करने वाले सभी भेदभावों को, मानव समाज से हटाया जाये, ताकि समय व स्थान से परे उस ’परम-सत्य’ के साथ पूर्ण अनुकूलन स्थापित हो सके। चूँकि आश्रम में संतों के इसी आध्यात्मिक उद्देश्य को ही प्राथमिकता दी गई है, अतः यहाँ अध्यात्म के जिज्ञासु ब्राह्मण, हरिजन, मुस्लिम आदि सभी जाति-धर्म के स्त्री-पुरुष, बिना किसी भेदभाव के एक साथ भोजन करते हैं।

         आश्रम के महात्मा एवं भक्त भी अपने जीवन में इस समानता के आदर्शों का ही अभ्यास करते हैं। इस आश्रम से जुड़े सभी श्रद्धालु भक्त व संतजन, श्रीसद्गुरु महाराज से दीक्षा में प्राप्त ‘परा-नाम’ के अंतर्नाद की साधना एवं ध्यान का सहारा लेते हुए, अपने मानव जीवन की सार्थकता को सिद्ध कर रहे हैं।

         संतों का यही मानना है कि, "नाम" सत्‌-चित्‌-आनंद का ही तरंगायित, अर्थात्‌ सस्पंद रूप है, अतः उस "नाम" की सहायता से निस्तरंग (स्थिर एवं शांत) सत्‌-चित्‌-आनंद का अनुभव किया जा सकता है। यह "नाम-भक्ति" ही इस आश्रम में चलने वाली साधना-विधि का सार है। सद्‌गुरु ही इस आराधना के केन्द्र हैं। इस आश्रम की जीवन-चर्या में ‘नाम-साधना’ एवं ‘सद्‌गुरु के प्रति समर्पण’, दोनों एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं।

         यह आश्रम जो आंतरिक रूप से ’नाम’ व ’सुमिरन’ की साधना, और सद्‌गुरु की आराधना में ही समर्पित है, अपनी जीवन-शैली में निष्काम-कर्मयोग के आदर्शों का अनुसरण करता है। आश्रम की जीवन-शैली में महात्मा-गाँधी के सामुदायिक-जीवन के सपने को पूर्ण साकार होते हुए देखा जा सकता है। चेतना की निर्मलता को दूषित करने वाली समस्त गतिविधियों से, स्वयं को दूर रखकर सभी आश्रमवासी, उन्हें सौंपी गयी जिम्मेदारियों को अपनी सामर्थ्य के अनुसारसमर्पण-भाव से निभाते हुए आश्रम की सेवा करते हैं। संत-महापुरुषों की तरह ही यह आश्रम भी ऐसा विश्वास रखता है कि प्रत्येक मानव-देह उस परम-सत्य, अर्थात्‌ ईश्वर का सर्वोत्तम एवं सौम्य मंदिर है, क्योंकि इस देह में ही उस परम-सत्य के साक्षात्कार की संभावनायें निहित होती हैं। प्रत्येक मनुष्य में ईश्वर अपनी पूर्णता एवं संपूर्ण महिमा के साथ विद्यमान है। ईश्वर के साथ पूर्ण तादात्म्य स्थापित करना या उनमें पूर्ण विलय हो जाना ही मानव जीवन की श्रेष्ठता है। प्रत्येक मानव में अपनी इस क्षमता को यथार्थ करने की संभावना निहित होती है। व्यक्ति को एक-दूसरे से पृथक करने वाले जाति, धर्म, लिंग, उम्र अथवा शिक्षा आदि जैसे कारक, मानव जीवन के इस परम-लक्ष्य की उपलब्धि में मूल्यहीन होते हैं। यह आश्रम इस दृष्टिकोण में विश्वास रखता है कि, सभी धर्म एवं दर्शन तंत्र एक ही सच्चिदानंद के विभिन्न निरूपण हैं। ये सभी उस एक परम-सत्य की अभिव्यक्ति के ही भिन्न-भिन्न माध्यम हैं। स्वयं सच्चिदानंद ने ही उन्हें अपनी इच्छानुसार धारण किया है। सभी धर्मों, दर्शनों एवं शास्त्रों में इसी एक सत्य का पारगमन है। इस सर्व समावेशित श्रद्धा के कारण इस आश्रम की विचारधारा एवं जीवन-शैली में सभी धर्मों के प्रति समान आदर-भाव है।

         इस आश्रम से प्रवहित ‘परा-नाम’ की अविरत भक्ति-धारा ने जाति, धर्म और सम्प्रदायों की भावनाओं को ध्वस्त कर,आध्यात्मिक जिज्ञासुओं को इन सभी भेद-भावों से परे सत्य-धर्म के सहज-मार्ग में प्रवेश दिलाया है और, उनके पथ को प्रशस्त किया है ताकि प्रत्येक व्यक्ति श्रीसद्‌गुरु की सेवा एवं उनके प्रति समर्पण से अपने जीवन की श्रेष्ठता को प्राप्त कर सके क्योंकि मात्र श्रीसद्‌गुरुदेव ही, अनमोल आध्यात्मिक-रत्न, अर्थात्‌ ‘परा-नाम’ के दाता हैं। इस आश्रम में यही परंपरा बिना किसी अवरोध के निरंतर चल रही है।

         संतों के मत के अनुरूप ही, इस आश्रम की भी यही धारणा है कि, मानव देह ईश्वर का अनमोल उपहार है। मन के भेदभाव तो मानव-जनित हैं। हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई आदि तो, मन के ही विचार हैं। मन ही समस्त संघर्षों के पैदा होने का स्रोत है। सारे बंधनों का कारण भी मन ही है और अमन ही मोक्ष की अवस्था है। ऐसा कहा भी गया है कि-

         "मन एव मनुष्याणां, कारणं बन्ध मोक्षयोः"
इसलिये, मन को ही ढालने और रूपांतरित करने की आवश्यकता है। यह रूपांतरण, "नाम" की आराधना एवं सद्‌गुरु के स्वरूप का ध्यान करने पर ही, संभव हो सकता है। यथार्थतः, यही आत्म-साक्षात्कार, एवं परमात्मा अथवा सत्य के साक्षात्कार का रहस्य है। मनुष्यों के प्रति समादर-भाव का दृष्टिकोण रखते हुए इस आश्रम ने स्वयं को जाति, धर्म, वर्ण, रीति-रिवाजों एवंसामुदायिक उन्मादों से दूर रखा है और सदा से ‘भक्ति-योग’ या ‘नाम-भक्ति’ (अर्थात्‌ "नाम" की साधना एवं सद्‌गुरु के स्वरूप का ध्यान) पर ही जोर देता आया है। इसी कारण से इस आश्रम का यह नारा (उद्‌घोष) है कि- " सद्‌गुरु की ’नाम-साधना’ एवं ’ध्यान’ का यह हमारा मंदिर, सबके लिये खुला है।" यहाँ नाम-सुमिरन, ध्यान एवं गुरुसेवा में समर्पित आश्रमवासियों के जीवन में मजबूरी, कुंठा, असुरक्षा आदि के चिन्ह-मात्र भी नहीं दिखते हैं। प्रत्येक आश्रमवासी अत्यंत विनम्र, प्रसन्न, उत्साह से भरा हुआ, सुचरित्रवान्‌ एवं ईमानदार है और, आत्म-सम्मानपूर्ण जीवन जीता है। मानव की आध्यात्मिक श्रद्धा की मजबूत बुनियाद पर खड़ा यह आश्रम, आध्यात्मिक-मानवतावाद का एक जीवन्त उदाहरण है। सद्गुरु महाराज से आध्यात्मिक-साधना की दीक्षा लेकर, देश-विदेश के अनेक स्त्री-पुरुष अपने दैनिक जीवन में ‘नाम-सुमिरन’ एवं ‘ध्यान’ की साधना करते हुए, तुलनात्मक रूप से अधिक आत्म-पूर्ण एवं आत्म-संतोषी जीवन जी रहे हैं।

         भारतवर्ष में उत्तरप्रदेश के जिला मिर्जापुर एवं जिला सोनभद्र में, इस आश्रम की ’श्रीगुरुदेवनगर एवं श्रीगुरुदासपुर’ नाम की दो बड़ी शाखायें हैं। आश्रम की अन्य बड़ी शाखायें हरिद्वार,मुंबई, देहरादून, कोलकाता आदि शहरों में भी हैं। इनके अलावा उत्तरप्रदेश एवं बिहार प्रदेश में, लगभग ६५ शाखायें हैं। इन सभी आश्रमों में रहने वाले साधु-संन्यासी, आगन्तुक जिज्ञासुओं एवं भक्तों को, आश्रम की शिक्षाओं के अनुसार जीवन-यापन करने में प्रोत्साहित करते हैं। इन शिक्षाओं में मुख्यतः आध्यात्मिक साधना एवं सद्‌गुरु के प्रति समर्पण के महत्व का ही प्रकाशन है। इस आश्रम की संपत्ति किसी व्यक्ति विशेष से संबंधित नहीं है क्योंकि, यह आश्रम एकमात्र सद्‌गुरुदेव और उनके शिष्यों का ही परिवार है, इसके अलावा यहाँ अन्य किसी वैयक्तिक परिवार का कोई अस्तित्व नहीं है। यह आश्रम समाज एवं देश की सेवा के लिये एक अनूठा न्यास (ट्रस्ट) है। एक ट्रस्ट के रूप में यह आश्रम केवल इस सम्पत्ति की सुरक्षा एवं रखवाली करने वाला ही है और, इसके संसाधनों को निरंतर बढ़ाने हेतु प्रयासरत है। इस संपत्ति से होने वाली आय का उपयोग, सभी वर्गों के जरूरतमंद एवं अध्यात्म-प्रेमी स्त्री-पुरुषों की सेवा हेतु ही किया जाता है। आश्रम की इस आय का उपयोग, विधवाओं व अनाथों की सेवा, अतिथियों की सेवा, जन-भोज (भंडारा), धार्मिक-महोत्सवों, और घाट, स्कूल, अस्पताल आदि के निर्माण जैसे लोक-कल्याणकारी कार्यों में किया जाता है। गंगा के तट पर‘श्रीआत्मविवेकानंद-घाट’, ‘स्वामी हरसेवानंदजी पब्लिक स्कूल’ और ‘स्वामी हरशंकरानंदजी हाँस्पिटल एवं रिसर्च केन्द्र’ आदि इस आश्रम की कुछ बड़ी लोक-कल्याणकारी परियोजनायें हैं, जिनका निष्पादन आश्रम के पूर्व-सद्‌गुरुदेवों की पुनीत स्मृति में हुआ है। इसका उल्लेख यहाँ अप्रासांगिक नहीं होगा कि, इन सभी प्रयासों के पीछे वर्तमान सद्‌गुरु की प्रेरणा ही, एकमात्र क्रियाशील प्रेरक-बल है।

         इस आश्रम में किसी भी आश्रमवासी का कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं है। केवल आश्रम के हित में ही सभी का हित शामिल है। इस तरह, निःस्वार्थ सेवा-भाव सहित रहने वाले आश्रम के साधु-संन्यासियों के जीवन में भगवान्‌ श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को बताया गया ’कर्म-योग’ स्वतः ही प्रकट होता है। गीता के अनुसार, "योगः कर्मसु कौशलम्‌", अर्थात्‌ कार्य की कुशलता ही योग है। आंतरिक एवं बाह्य कर्मों में कुशलता व श्रेष्ठता का रहस्य है- "मामनुस्मर युध्य च", जिसका अर्थ होता है, "मेरा स्मरण करो एवं अपना कर्त्तव्य करो"। गीता के इन वचनों को अपनी जीवन-शैली का आदर्श मानते हुए यह आश्रम, “नाम-सुमिरन” की साधना एवं “जनहित-कर्म” करते हुए अपने आंतरिक एवं बाह्य रूप को निरंतर निखार रहा है। जैसा कि संत-सुंदरदासजी अपनी भावनायें व्यक्त करते हुए कहते हैं कि- "गुरु की महिमा ईश्वर की महिमा से अधिक होती है," अथवादूसरे शब्दों में जैसा कि संत-सहजोबाई ने कहा है- "हरि तजूँ पै गुरु न बिसारूँ"; सद्‌गुरु महाराज के प्रति ऐसी ही श्रद्धामय भावनायें, यहाँ पर सभी आश्रमवासियों के रवैये, व्यवहार एवं जीवन-शैली में झलकती हैं।

         इस आश्रम के बाहरी पहलू एवं, आंतरिक आध्यात्मिक-विकास को निर्धारित करने वाले तत्त्व, और आश्रमवासियों के चरित्र का निर्माण, यह सभी कुछ श्रीसद्‌गुरु महाराज द्वारा सिखायी जाने वाली ध्यान-साधना से ही उद्भूत हैं। आध्यात्मिक-साधना का यह प्रारूप ही, इस आश्रम की धड़कन है। यह मात्र सद्‌गुरु ही बता सकते हैं कि ध्यान की प्रक्रिया स्वयं में क्या है? इस ध्यान की सैद्धांतिक भूमिका को प्रसिद्ध संत सुन्दरदास ने निम्न पंक्तियों में स्पष्ट किया है-
मन सी न माला कोऊ, अजपा (सोहं) सों न जाप ।
आतम सों देव नाहि, देह सों न देहरा ॥

(संतवानी-संग्रह, भाग-२, पृष्ठ १२५)

         “मन से अच्छी कोई माला नहीं है, अजपा-जप से अच्छा कोई सुमिरन (स्मरण) नहीं है, अर्थात्‌, मानसिक-स्मरण से अच्छा कोई जप या सुमिरन नहीं है। आत्मा से बड़ा कोई देवता नहीं है, और मानव देह से श्रेष्ठ कोई मंदिर नहीं है।“इस संक्षिप्त भूमिका से आश्रम का यह संदेश बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि, मानव की देह से अच्छा कोई मंदिर नहीं है, अर्थात्‌ मानव शरीर ही भगवान्‌ का सर्वश्रेष्ठ मंदिर है। अतः आश्रम की आचार-संहिता में, मनुष्यों के बीच जाति और धर्म पर आधारित, भेदभाव का कोई स्थान नहीं है। मानसिक-सुमिरन की माला एवं अजपा-जप, ये दोनों ही इस आश्रम में चलने वाली आध्यात्मिक-साधना की कर्मकांडवाद से पूर्णतः मुक्त प्रकृति को उजागर करते हैं।

         संतों के मतानुसार यह प्रक्रिया सरल, सहज और प्राकृतिक है। ध्यान की इस प्रक्रिया में, जैसे-जैसे साधना में प्रगति होती है, साधक में श्रेष्ठ सद्‌गुण जैसे कि संतोष, शांति, आत्म-निर्भरता, नैतिक बल, सभी धर्मों के प्रति आदरभाव, जीवमात्र के लिये प्रेम, दया, विनम्रता, सेवाभाव आदि स्वतः बढ़ते ही जाते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि इस आश्रम की आध्यात्मिक साधना, साधक के मानस में रूपांतरण लाती है और, इस तरह उसके आध्यात्मिक अनुभवों के क्षेत्र को समृद्ध एवं व्यापक बनाती है। इस ध्यान-प्रक्रिया से साधक में, स्वयं एवं बाह्य परिवेश के साथ सांमजस्य स्थापित करने वाले गुणों का विकास प्रारंभ हो जाता है। इस साधना का प्रभाव अप-केन्द्रीय (केन्द्रापसारी) होता है, जो अंदर से बाहर की ओर कार्य करता है। दूसरे शब्दों में, इस आध्यात्मिक साधना के द्वारा सुप्त सुरत, जाग्रतहो जाती है। इस तरह मनुष्य के चेतना-कमल की बंद पंखुड़ियाँ खिल जाती हैं। इस सुप्त चेतना-कमल के खिलने से इसकी सुवास, साधक में सद्‌गुणों के रूप में प्रकट होती है। व्यक्तियों में चेतना-रूपांतरण के सह-उत्पाद के रूप में विकसित हुए, इन नैतिक-गु्णों से, अंततः संपूर्ण मानव-समाज का उत्थान होता है और संपूर्ण विश्व लाभान्वित होता है। शिष्यों में चेतना के इस सकारात्मक रूपांतरण के लिये ही, सद्‌गुरु उन्हें गुरुमंत्र के रूप में ‘परा-नाम’ से दीक्षित करते हैं और, प्रत्येक जीव के प्रति समभाव दृष्टि देते हैं। श्रीसद्‌गुरु आत्म-साक्षात्कार की राह प्रशस्त करते हैं और, समर्पण के भाव से परिपूर्ण कर जीवात्मा की रिक्तता को भरते हैं। श्रीसद्‌गुरुदेव सदा ही सच्चिदानंद में लीन रहते हैं और, शिष्य को भी इसके अनुभव की ओर अग्रसर करते हैं। श्रीसद्‌गुरु केवल मौखिक उपदेशों द्वारा ही शिष्य की चेतना का रूपांतरण एवं उसमें नैतिक व आध्यात्मिक गुणों का विकास नहीं करते अपितु वे स्वयं अपने जीवन में उन आदर्शों को जीते हैं। इन आदर्शों पर जीते हुए सद्गुरुदेव इन सद्‌गुणों को शिष्य के मन में बैठाते हैं। अनासक्त और निःस्वार्थ सेवा-भाव से जीने वाले सभी आश्रमवासियों के लिये श्रीसद्‌गुरुदेव ही, एकमात्र आदर्श प्रेरणास्रोत हैं।

         इस आश्रम की एक और विशेषता यह है कि, यहाँ पुरुषों के समान ही स्त्रियों को भी आश्रम में रहने एवं संन्यास-धर्म ग्रहणकर आध्यात्मिक साधनामय जीवन जीने का अधिकार है। इस आश्रम के साधु-संन्यासी, सद्‌गुरु महाराज की इच्छाओं एवं आज्ञाओं का पालन करते हुए और निःस्वार्थ भाव से सेवा के प्रति निष्ठावान्‌ रहते हुए, आश्रम की उन्नति हेतु समर्पित हैं। संतों की शिक्षा के अनुसार, भीख माँगना एक निषिद्ध कर्म है। इसीलिये, किसी से भी कुछ माँगे बिना, दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाली अधिकांश वस्तुओं का उत्पादन, आश्रम में ही करना, इस आश्रम की एक अन्य विशिष्टता है।

         यह गड़वाघाट आश्रम, सांसारिक व्याधियों का सर्वोत्तम उपचार है, और परम पूज्य सद्‌गुरु महाराज, यहाँ के कुशल वैद्य हैं। यह मठ गड़वाघाट आश्रम, मन के विकारों को दूर करने के साथ-साथ, आध्यात्मिक चिकित्सा का एक सर्वश्रेष्ठ केन्द्र है। इस आश्रम के साधु-संतों की जीवन-शैली में, ज्ञान, भक्ति और कर्म के रूप में प्रवाहित चेतना की तीन धाराओं का संगम है और इसमें डुबकी लगाकर वे, तेजी से अपनी आध्यात्मिक प्रगति कर रहे हैं।

         यह आध्यात्मिक-आश्रम वैधानिक रूप से एक न्यास (ट्रस्ट) है। अपने जन-कल्याण के उद्देश्यों को पूरा करने के लिये, मठ गड़वाघाट के इस ट्रस्ट ने, अपने ही संरक्षण में तीन अन्य ट्रस्टों का भी निर्माण किया है-
१. मठ गड़वाघाट गो-संरक्षण ट्रस्ट

         यह धार्मिक ट्रस्ट निर्धनों की सहायता एवं गायों के संरक्षण की दिशा में कार्य कर रहा है और इस हेतु यह ट्रस्ट गौ-शालाओं, पशु-चिकित्सालयों एवं चारागाहों के निर्माण व विकास आदि जैसी गतिविधियों का संचालन करता है। मुख्य गड़वाघाट आश्रम के साथ-साथ इसकी श्रीगुरुदेवनगर और हरिद्वार की शाखाओं में सुंदर गौ-शालायें, इस ट्रस्ट की गतिविधियों को स्वयं ही दर्शाती हैं।

         २. मठ गड़वाघाट स्वास्थ्य-कल्याण ट्रस्ट

         यह धार्मिक ट्रस्ट निर्धनों की सहायता, एवं निःशुल्क औषधालयों, प्रसूतिका-गृहों एवं अस्पतालों की स्थापना व उनके रख-रखाव के लिये समर्पित एवं प्रतिबद्ध है। इस आश्रम के सभी आश्रमवासी, स्वेच्छा से अपने नेत्र-दान की स्वीकृति दे चुके हैं। यह उल्लेखनीय है कि अब तक ३६ आश्रमवासियों के नेत्र, उनके मरणोपरांत नेत्र-बैंक को दान किये जा चुके हैं। ‘स्वामी हरशंकरानंद जी हास्पिटल एवं रिसर्च केन्द्र’ में निःशुल्क नेत्र-कैंप का आयोजन किया जाता है। यहाँ मोतियाबिंद के लिये जिन मरीजों की शल्य-चिकित्सा की जाती है, उन्हें आश्रम की ओर से निःशुल्क ठहरने एवं भोजन की सुविधा के अतिरिक्त, दवायें एवं चश्मेंभी निःशुल्क दिये जाते हैं। आश्रम की जन-स्वास्थ्य सुरक्षा संबंधित गतिविधियों के संदर्भ में यह उल्लेख करना उचित होगा कि आश्रम की स्थापना के समय से ही दमा जैसे घातक रोगों के उपचार के लिये प्रतिवर्ष शरद-पूर्णिमा के दिन श्रीसद्‌गुरुदेव स्वयं अपने कर-कमलों से आयुर्वेदिक-औषधि का वितरण करते हैं।
३. मठ गड़वाघाट दलित समाज उत्थान कल्याण ट्रस्ट

         दलितों और निर्धनों की सहायता और उनकी प्रतिभा को विकसित व प्रोत्साहित करने के लिये, एवं दरिद्र-नारायण की सेवा के लिये इस ट्रस्ट की स्थापना की गई है। इस धार्मिक ट्रस्ट के तहत, आर्थिक रूप से गरीब छात्रों को, उनकी शिक्षा के लिये वित्तीय सहायता दी जाती है। आश्रम में प्रतिदिन सभी आगन्तुकों को भोजन दिया जाता है एवं प्रतिवर्ष लगभग १० जन-भोज (भंडारों) का आयोजन किया जाता है। आश्रम में किसी भी व्यक्ति को दलित नहीं माना जाता है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से प्रत्येक व्यक्ति सम्मानीय है क्योंकि इस मानव देह में ही ईश्वर का साक्षात्कार संभव है।
आध्यात्मिक-साहित्य के प्रकाशन के संदर्भ में, वर्तमान पीठासीन स्वामी एवं परमपूज्य सद्‌गुरुदेव ही एक महान प्रेरणास्रोत हैं एवं वे स्वयं सृजनात्मक रूप से इसमें सक्रिय हैं। इस आश्रम से आध्यात्मिकता एवं आध्यात्मिक-साधनाओं पर अब तक ४० ग्रंथों का प्रकाशन हो चुका है।

सद्गुरु परंपरा

श्री श्री १००८ श्री स्वामी अद्वैतानन्द जी महाराज परमहंस

श्री श्री १००८ श्री स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज परमहंस

श्री श्री १००८ श्री आत्मविवेकानंद जी

प्रथम पादशाही

श्री श्री १००८ श्री हरशंकरानंद जी

द्वितिय पादशाही

श्री श्री १००८ श्री हरसेवानंद जी

तृतीय पादशाही

श्री श्री १०८ श्री सद्गुरु शरनानंद जी

चतुर्थ पादशाही (वर्तमान)